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सितम्बर माह और राष्ट्रभाषा हिंदी का सम्बन्ध है. इस माह सभी जगह राष्ट्रभाषा को प्रोत्साहन देने हेतु अनेक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. आज के समय में हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की क्या दशा है, ये तो विषय विशेषज्ञों द्वारा अनेक माध्यमों द्वारा पता चल ही जायेगा, पर इसी सन्दर्भ में मुझे हाल ही की एक घटना याद आ गयी.
सिनेमा हॉल में बाहुबली-२ देखते हुए मेरी छोटी सी बेटी कई शब्दों पर चिल्ला पड़ी, “ अरे! ये सूअर क्यों बोल रहे हैं…, ये पिग होता है. आपको बिलकुल नी पता. जितने पशु और पक्षियों की अंग्रेजी से वो परिचित थी उनके लिए बार-बार ऐसे ही बोल रही थी. इसे बोलते है…, मानो उसकी इंग्लिश ट्रांसलेशन (अंग्रेजी अनुवाद) की क्लास चल रही हो.
उसकी बड़े परदे पर ये पहली फिल्म थी और इसके गाने उसे बहुत पसंद थे. उसे सब कुछ बड़ा- बड़ा और अपने पास लग रहा था. उसे देवसेना भी बनना था, लड़ना भी था और डरना भी. हर दृश्य पर उसके सवाल सुनकर अगल-बगल के लोग उसको देखकर मुस्करा भी रहे थे, पर न जाने क्यों मुझे अजीब लग रहा था.
घर वापसी के समय मेरा मन सोच में पड़ गया कि यदि कोई हिंदी बोल रहा है, तो उसमें समस्या क्या है? वो तो चार वर्ष की बच्ची है और इंग्लिश आना अच्छी बात है, पर इसे सूअर न बोलो, ये कब हो गया. कहीं न कहीं उसके जेहन में जाने-अनजाने हमने उसे ये सीख दे दी कि अंग्रेजी में बात करने से सब लोग खुश होते हैं.
अब मैं ध्यान रख रही हूं कि वो उतनी ही हिंदी भी बोले और उसका सम्मान भी करे. कई बार मुझे लोगों से सलाह और नसीहत भी मिली है कि यदि बच्चे ने इंग्लिश में बात नहीं की, तो उसका तथाकथित बेस्ट स्कूल में चयन नहीं होगा. पर क्या केवल अंग्रेजी ही प्रगति का आधार है, ये हम सभी को सोचना होगा.
ये सच है कि अंग्रेजी पूरे देश की संवाद की भाषा बन चुकी है और इतना तो हर कोई सीख ही लेता है कि वो अपनी बात समझा सके. इसके उदाहरण हैं सामान विक्रेता, जो अपने काम चलने लायक हर भाषा पर पकड़ बना ही लेते हैं. पर अंग्रेजी में बात करने का माहौल ऐसा बन चुका है कि हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने वाले कुशाग्र विद्यार्थी अपना आत्म विश्वास खो देते हैं, क्योंकि उनका ध्यान स्वयं के बोले गये शब्दों पर ही रहता है. उन्हें लगता है उन्हें सब कुछ आता है पर अंग्रेजी में बात करना नहीं आता.
हम जो कुछ भी अर्जित करते हैं, उसके लिए आत्म विश्वास जरूरी है. भाषा उसमें सहायक हो सकती है, पर एक भाषा में अच्छी पकड़ न होने से अपना आत्मविश्वास डगमगा देना कितना उचित है?
आप अपने घर में ही अपने बच्चों को देख लीजिये, प्रत्येक बच्चा अपने विषय को रटने में लगा हुआ है, क्योंकि अंग्रेजी उसके घर में बोली जाने वाली भाषा नहीं है और सब विषय अंग्रेजी में पढाये जाते हैं. तब वो रटेगा नहीं तो क्या करेगा? घर में उसकी देखरेख करने वाले परिवार के लोग अपनी प्रांतीय भाषाओं में बात करते हैं, तो वो कब सीखेगा? केवल स्कूल के समय और जब वो सीख जाएगा, तब क्या होगा उस पर एक किस्सा याद आया…
“दादी ने गांव आये अपने पोते से एक पाव टमाटर मंगाए और उसने दादी से पूछा- दादी, एक पाव का मतलब? दादी को समझ नहीं आ रहा था कि इस बात पर वो खुश हों या दुखी.”
अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना और अंग्रेजी सीखना कोई बुरी बात नहीं, पर जब हाल ही में मैंने एक बड़ी मुश्किल से अपने घर का गुजारा करने वाले से ये कहते सुना कि कुछ पैसा बचता ही नहीं, बस केवल बच्चे की फीस ही दे पा रहे हैं. ये अच्छे स्कूल में पढ़ जाए तो वही बहुत है. कहीं न कहीं मैं ये सोचने पर मजबूर हुई कि केवल अंग्रेजी में बोलना और अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना ही प्रगति का आधार क्यों माना जाने लगा है.
एक सेवानिवृत्त अधिकारी की पत्नी की व्यथा भी सुनी कि बच्चों को टॉपमोस्ट स्कूल में पढाया. सभी मां-बाप करते हैं, अपने बच्चों के लिए, हमने भी किया. अच्छा कमाते हैं वो सभी, पर अपने साथ बिठाने में उन्हें हिचक होती है, क्योंकि मैं अंग्रेजी में कहां बोल पाती हूं और इसी कारण उनके साथ विदेश जाने में कोई रुचि भी नहीं है.
इस बात में कोई दो राय नहीं कि बहुत से अभिभावक हिंदी माध्यम के विद्यालयों में इसलिए भी नहीं भेजना चाहते, क्योंकि वहां बैठने, पानी और विशेष रूप से शौचालयों की दशा बुरी है. मगर शिक्षकों की योग्यता पर संदेह नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनका चयन राज्य स्तरीय परीक्षा के माध्यम से होता है.
अब कहीं न कहीं ये टटोलने की आवश्यकता तो है कि राज्य स्तरीय शिक्षण संस्थाओं में बुनियादी सुविधाओं का अभाव क्यों है और ये कैसे सुधारी जाए. अंग्रेजी ही सब कुछ है के चक्कर में बच्चे अपनी नैसर्गिक योग्यता न खो दें. केवल अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में अपने बच्चों को पढ़ाने में अभिभावक अपनी पूंजी का एक बड़ा हिस्सा न गवां दें.
इन सब पहलुओं पर जन जागरण की आवश्यकता है. अनेक भाषाओं का ज्ञान हमें समृद्ध ही बनाता है और व्यक्तित्व विकास में सहायक होता है, पर अपनी अभिव्यक्ति की भाषा पर हमें गर्व भी होना चाहिए, इस बात को समझना और समझाना भी जरूरी है.
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