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महिला दिवस पर आज एक स्त्री होने के नाते मुझे उन सभी महान स्त्रियों पर गर्व होता है जिन्होंने उच्चतम उपलब्धियां प्राप्त की. साथ ही इन महान व्यक्तित्वों के पीछे समाज के उन सभी हाथों को भी नमन जिन्होंने उन्हें प्रेरणा दी और पथ प्रदर्शक भी बने. महिला दिवस केवल महिलाओं का दिन नहीं वरन उन सभी के सम्मान का दिन है जिन्होंने स्त्री को वस्तु नहीं बल्कि जीव माना .उनके प्रति हो रहे अन्याय के विरोध में कष्ट सहे और स्त्री को तुच्छ समझने की मानसिकता को बदलने का प्रयास किया और कर रहे हैं.
कई सुखद उदहारण भी है तो नकारात्मक घटनाएं भी है ,जो हर दिन यही बताने का प्रयास हैं – बेटी बच भी गयी और पढ़ भी गयी तो भी क्या सशक्त बन पाएगी ? आज की आवश्यकता है ,स्त्री को मानसिक रूप से भी सशक्त करने की. शरीर से दुर्बल व्यक्ति कुछ कार्य कर भी सकता है पर मानसिक दुर्बलता व्यक्ति को अपने आप से ही दूर कर देती है . आत्म विश्वास खोया व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष क्या कुछ अच्छा कर पायेगा.
बचपन से ही समाज द्वारा भेदभाव की शिकार होती ,पराये धन की संज्ञा पाने वाली बेटियां. आज तो समाचार पत्र उठाओ या टीवी का चैनल लगा लो ,सभी को पता हैं कि बेटी को समाज के कुछ दरिंदों से बचाना मुश्किल है और साथ ही दहेज़ का दानव तो पहले से ही उसका पीछा कर रहा है. इन सब से बच भी गयी तो भी मानसिक उत्पीड़न तो जीवन भर चलता है मानो लड़की का जन्म गुनाह हो गया. एक और स्त्री को देवी बना के पूजा करते है और दूसरी और उसके साथ आसुरी व्यवहार. तब मन में यही भाव आता है – अरे ! देवी न बनाओ पर एक इंसान की तरह व्यवहार कर लो.
इसके लिए स्त्रियों को स्वयं विचार करना होगा. पुरुष तो उनका सहयोग कर ही लेंगे पर पहले अपने मानसिक बंधनो से तो मुक्त हो. पुरुष की सहचरी नारी यदि स्वयं बड़ी उपलब्धि या सम्मान नहीं प्राप्त कर पायी तब भी अपने बेटों में तो स्त्री सम्मान की भावना को प्रबल बना सकती है और अपनी बेटियों को शारीरिक और मानसिक शक्ति के सुरक्षा दे सकती है. आप स्वयं विचार करें ,घर में स्वयं अपने बेटे- बेटी में भेदभाव, बेटी और बहु में फर्क करना , पत्नी या बहु को तुच्छ समझना और अपमान करना क्या हम सभी के घरों का हिस्सा नहीं है .
आधे से ज्यादा महिला आबादी कैसे धारावाहिकों में अपना मनोरंजन ढूंढ़ती है ? आज भी टीवी सीरियल में देखो तो उसकी भूमिका घर की तेज तरार मालकिन या अपना अस्तित्व ढूंढती बेचारी परेशान या सब काम में निपुण आदर्शवादी स्त्री के रूप में होती है और कुछ तो साजिशो के खेल में माहिर होती है कि क्या कहने ? खाली समय में कितनी स्त्रियां योग्यता – संवर्धन में अपना समय लगाती है ?
गिनती में भी नहीं ऐसे धारावाहिक या कार्यक्रमों की ,जिनमे महिलाओ के अधिकारों और उनके लिए संघर्ष करने वाले महान व्यक्तित्वों को दिखाया जाए. समाज के हर तबके को प्रयास करना ही होगा केवल महिला दिवस मनाने से क्या होगा ? बाल विवाह, सती प्रथा ,पर्दा प्रथा का उन्मूलन आखिर हुआ ही और ऐसे अनेकों सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है ताकि महिला सशक्त बने क्योंकि समाज रुपी गाडी का एक पहिया स्त्री भी है और एक पहिये के पंक्चर होने से गाडी नहीं चल पाएगी.
अनुराधा नौटियाल ध्यानी
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