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पीछा छूट ही गया, इस साइंस और मैथ्स से. हाई स्कूल की परीक्षा में पास होते ही समर के मन की बात जुबान तक आने में देर नहीं हुई. समर मेरे पड़ोस में ही रहता है. पढाई में वो सामान्य था पर परीक्षाफल के समय उसे पिटाई जरुर पड़ती और वो भी साइंस और मैथ्स के कारण. उसे मशीनरी और उपकरण के काम करने में बड़ा आनंद आता था और मिनटों में ठीक भी कर देता था पर विज्ञान के सूत्र तो मानो दिमाग के अन्दर प्रवेश करने से पहले ही परावर्तित हो जाते थे. मैंने कई बार उससे कहा भी था-तुम थोडा ध्यान लगाओ तो एक कुशल इंजिनियर बन सकते हो पर उसे यही लगता रहा की साइंस उसके बस की बात नहीं. ये केवल समर की नहीं वरन न जाने कितने विद्यार्थियों की कहानी है जिनका दिमाग तो बहुत अच्छा होता है लेकिन वो इसे पाठ्यक्रम से जोड़ ही नहीं पाते है. मेरी शिक्षक मित्र हर साल परेशान रहती है कि न जाने कितने विद्यार्थी पास हो पायेंगे और यदि ज्यादा अनुतीर्ण हुए तो विद्यार्थियों का जो हो सो हो उसका स्वयं का भविष्य क्या होगा ? इसी तरह मेरा अनुभव भी है, कि बड़ी- बड़ी प्रयोगशालाओं और रिसर्च केन्द्रों पर कुछ बेहतरीन विचार उन कर्मचारियों से आ जाते है , जो वैज्ञानिक भी नहीं होते है. कई बार मैंने सोचा कि यदि इनको प्रयोगों के पीछे का विज्ञान बता दिया जाए तो और भी अच्छा होगा पर उनका हमेशा यही जवाब होता –मैडम , हमारे पास वो दिमाग नहीं है जो विज्ञान को हम समझे. क्या सच में विज्ञान इतना मुश्किल है ?
तब प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं हमारी शिक्षा प्रणाली और आसपास के वातावरण में कुछ तो खामियां है जो विज्ञान के अनुप्रयोगों से लाभ तो ले रही है पर उसके पीछे के रहस्यों को या तो अनुसन्धान केन्द्रों में बंद करके रखे हुए है अथवा उसका प्रस्तुतीकरण बोझिल सा है. आज भी विज्ञान विषय या तो हव्वा बन गया है या प्रतिष्ठा का विषय.
प्रतिष्ठा का विषय से आज भी मुझे याद है कि मेरी मित्र ने जब कला विषय का चुनाव किया तो सभी ने उसे मूर्ख कहा था. क्योंकि सभी की राय थी कि होनहार छात्रा होने के कारण उसे विज्ञान विषय ही लेना चाहिये था. मेरे कई सहपाठी कला विषय में बहुत अच्छे थे पर उन्होंने जबरन विज्ञान ली और किसी तरह पास हो सके और कई बाद में अपनी गलती पर अफ़सोस करते रहे. कला विषय के विद्यार्थियों को तो कई बार हीन नजरो से देखा जाता था . विचारधारा में परिवर्तन तो हुआ है पर आज भी बचपन से विद्यार्थी केवल डॉक्टर और इंजिनियर बनना चाहते है. यदि विद्यार्थी पढाई में औसत है तो कक्षा ६ के बाद तो सभी विज्ञान और गणित पर ज्यादा जोर देने लगते है मानो अन्य विषय तो किसी काम के है ही नहीं .
मुझे हैरानी तो बाद में होने लगी जब कॉलेज के समय पता चला कि विज्ञान विषय की डिग्री कुछ छात्राये इसलिए ले रही थे ताकि उन्हें अच्छे रिश्ते मिल सके. आज भी ज्यादा कुछ बदला नहीं है. आज के दौर में तो पैसों से साइंस या इंजीनियरिंग में दाखिला मिलने लगा है. घर -परिवार की प्रतिष्ठा बढने के साथ -साथ, किसी को नौकरी भी मिल जाती है और किसी को अच्छे रिश्ते भी . आज युवाओ के पास विज्ञान विषय की डिग्री तो है पर वो अनुसन्धान केन्द्रों और उद्योग जगत की आवश्यकता को पूर्ण नहीं कर पा रहे है. उसके लिए अनेक कारक जिम्मेदार है जिसकी चर्चा अनेक मंचों पर भी की गयी है.
विज्ञान का असली स्वरुप तो मानो कहीं खो ही गया है. हमारे देश में योग्यता की कमी नहीं है पर उचित वातावरण तो निर्मित करना ही होगा. आज की पहली जरुरत है, वैज्ञानिक सोच का वातावरण बनाने की . इस दिशा में प्रयास किये जा रहे है पर अभी भी भागीरथ –प्रयास की आवश्यकता है ताकि आज के युवा विज्ञान विषय का अध्ययन चाहे न करे पर उससे खौफ न खाए . इसके लिए विज्ञान के सही स्वरुप को सामान्य जन के बीच पहुँचाना और उसे लोकप्रिय बनाया जाना बहुत आवश्यक है और ये कदम देश के नवनिर्माण में भी सहायक होगा.
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