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मुस्कान का आज ससुराल में पहला कदम था. दर्पण के सामने, अपने आपको निहारते हुए वह पुरानी यादों में खो गयी. वो परिवार का गर्व तो थी ही, साथ ही कॉलेज की शान भी. कॉलेज कैंपस में ही बड़े पद पर उसका चयन हो गया था और उसे लगा जैसे उसने अपने सफ़र की बड़ी मंजिल तय कर दी है. अब तो मानो उसके पास विद्या और धन, दोनों ही देवियों का आशीर्वाद था. बचपन से ही उसे आगे बदने की प्रेरणा मिलती रही और वो भी अपने आप से ही स्पर्धा करती हुई “नारी तू नारायणी ” को सार्थक कर रही थी .
“ आ-जाओ “ की आवाज ने उसकी सुनहरी यादों पर विराम लगाया और नव वधु के वेश में वो मेहमानों के स्वागत में लग गयी. उपहारों के आदान-प्रदान, आशीर्वाद का क्रम शुरू हुआ. समाज की दृष्टि और वार्तालाप का केंद्र उसके चेहरे, गहने, वस्त्रो, सजावट, लाये गए सामान पर ज्यादा था. कुछ बातों से उसके मन की ख़ुशी कम हो रही थी पर मुस्कराना उसकी मज़बूरी हो रहा था. आज भी उसे अच्छी संतान होने का नहीं वरन पुत्रवती होने का ही आशीर्वाद मिल रहा था .
पिछले २८ वर्षों से उसका संघर्ष ,उसकी सफलता, उपलब्धियों को जान कर भी समाज बदला नहीं है. पहली बार उसे अपनी योग्यता, प्रतिभा बेमानी लग रही थी . स्त्री कितना भी प्रगति कर ले, रोल-मॉडल बन जाए पर फिर भी समाज को पुत्र ही चाहिए . आशीर्वाद में पुत्रीवती भव का प्रचलन कभी था ही नहीं तो ऐसा आशीर्वाद देने का साहस कौन कर सकता है ?
आज भी स्त्री अपने अस्तित्व की लड़ाई ही लड़ रही है. कुछ लोग बदल पाए है इसीलिए अब पुत्री जन्म पर कोई दुःख प्रकट न भी करे तो भी सबकी आखों में वो चमक और आनंद नहीं होता जो पुत्र जन्म पर होता है. नारी के शक्ति स्वरुप को नमन करते हुए भी, उसकी शक्ति से परिचित होने के बाद भी ,पुत्र प्राप्ति की कामना के लिए व्रत और उपासना की जाती है और वो भी देवी माँ से जो स्वयं स्त्री शक्ति का पूर्ण स्वरुप है.
पर आज उसे इस बात की ख़ुशी थी कि उसने बहुत परिश्रम किया और एक मुकाम पाया. जब उसके जैसे लाखो उदाहरण सामने आयेंगे तब कभी तो वो सुबह होगी जब पुत्रीवती-भव का आशीर्वाद भी कोई देगा. विचारों के ज्वार- भाटे से बाहर निकल कर अब वो फिर से मुस्कराहट के साथ विवाह की शेष रस्मों को निभाने में लग गयी.
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